बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

इतनी सलवट कैसे आई वैरागी मन की चादर पर




इतनी सलवट कैसे आई बैरागी मन की चादर पर 

मैंने केवल इन आँखों से दर्शन भर की भिक्षा चाही ||



शायद बीते काल खंड को तुमने आत्म निमंत्रण देकर 
बुला लिए यादों के पाखी उजड़े बिखरे राज महल में 
टंके हुए हैं शिलाखंड कुछ गिजबिज सी आवाजें भी हैं 
फिर इनको अवलोकित करने क्यूँ जाते हो बीते कल में ||

तुमने सब इतिहास रख दिया मेरी कुटिया की ड्योढ़ी पर 
मैंने केवल इस जीवन से जीवन भर की शिक्षा चाही ||

तुमने फरियादी मन्त्रों से लाखों हवन जलाए होंगे 
जिसकी राख धुआं बन अब भी आसमान में उडती होगी 
मदनोत्सव के जाने कितने अनुष्ठान बैठाये तुमने 
जिनके चक्रवात से तेरी साँसें खुद से लडती होंगी ||

तुमने धूल भरी ये आंधी क्यूँ भेजी मेरी चौखट पर 
मैंने केवल आलिंगन में आने भर की इच्छा चाही ||

सत्य मार्ग पर ऊबड़ खाबड़ बिछी भरम की पगडण्डी पर 
तुम आभासी पर्वत को ही अपनी मंजिल मान गए थे 
थक कर जिसकी छावं तले तुम बैठे थे वो छणिक छलावे 
कोमल पैरों पर दुनिया की -जंजीरें पहचान गए थे ||

तुम अपना सर्वश्व सौंपने की अपनी जिद को समझा दो 
मैंने केवल आत्म मिलन की सीधी सरल परीक्षा चाही ||

बीते कल के भोजपत्र पर कितनी ही बातें झूठी थी 
लेकिन तुमने बिना पढ़े ही स्वीकारा था अनुबंधों को 
कुछ मौखिक अनुभव मैंने भी मौलिक अपने बतलाये थे 
निर्विकार कैसे जी सकते हैं - हम झूठे संबंधों को ||

तुम विस्तृत सुनाने बैठी हो मेरी ही पीड़ा मुझको 
मैंने केवल इस पीड़ा की मरहम तुल्य समीक्षा चाही ||


मनोज 

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