शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

कवियों की बस्ती




























कवियों की बस्ती में कौवे करते यहाँ बसेरा हैं 
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

एहसास हुआ निस्वास यहाँ पर मर्यादा का ओछापन
करतूतें काली करते हैं ज्ञान बांटते मूरख जन
दुर्व्यवहार दंभ अभिलाषी सरपंचों का मंच गजब है
लेखन नहीं लेखनी इनकी अपशब्दों का दंश अजब है ||

काली रात अमावास की है सहमा हुआ सवेरा है
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

राज नहीं कर पाए बेहतर राजपूत की शान दिखाएँ
गलती के परिणाम यहाँ पर खुद को ही सम्मान दिलाएं
भीड़ सियारों की शेरों को घेर रही है आज अकारण
खुद ही अपने हाथों करने चला भेड़िया अपना मारण

मिट जाएगा दंभ मूढ़ जिसने तुझको यूँ घेरा है
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

दीपक की मर्यादा केवल जलने तक ही सीमित है
राजपूत के सही मायने इतिहासों में कीलित हैं
मार लेखनी की जब बरसी बड़े बड़े बर्बाद हो गए
शब्द अर्थ के विस्तारों में कितने ही अनुवाद हो गए

तूफानों से दीपक लड़ ले निश्चित समझ अँधेरा है
कवियों की बस्ती में कौवे करते यहाँ बसेरा हैं ||......मनोज

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्ट की चर्चा 17- 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है कृपया पधारें ।

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  2. कवियों की बस्ती में कौवे करते यहाँ बसेरा हैं "
    सोचने को बाध्य करती रचना |
    आशा

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